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पचम सर्ग [ नेमिनाथमहाकाव्यम् तब दधि के समान शुभ्र यश वाला इन्द्र एकाएक सिंहासन से उठा जैसे गाढी चांदनी के कारण दर्शनीय चन्द्रमा उदयाचल से उदित होता है। १७॥
सारी दिशाओ मे दृष्टि डालती हुई तथा 'यह क्या है' घबराहट से इस प्रकार वोलती हुई समूची सुधर्मा सभा देवपति इन्द्र के सहमा उठने से क्षुत्य हो गयी ॥१८॥
___ तव इन्द्र तीर्थंकर की ओर सात-आठ कदम चला। पूज्यजनो के चरणकमलो के दीखने पर विवेकशील लोगो के लिये यही उचित है ॥१९॥ ,
"मैंने तीनो लोको के स्वामी को पहले नहीं देखा है, नत में जम्भ के विजेता इन्द्र से भी पहले प्रभु को नमस्कार करूंगा", मानो इपी कारण उसकी छाती पर पहना हुआ उत्तम हार (हिल कर) आगे गया ॥२०॥
इन्द्र ने, जिसका कन्धा बांए कान के कर्णाभूषण की किरणो से व्याप्त उत्तरीय से विभूषित था, विधिपूर्वक प्रणाम करके घुटने टेक कर जिनेन्द्र की स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥२१॥
___प्रणाम करते हुए इन्द्र के सिर के मुकुट की ज्योति रूपी पुष्परस से मधुर चरणकमलो वाले हे देव ! आपको नमस्कार । मथित क्षीरसागर की धनी तथा स्वच्छ तरगो के ममान अतीव निर्मल गुणो से अथाह हे देव ! आपको प्रणाम ॥२२॥
हे जिनेन्द्र । आप, जिन्होने अपनी ज्योति के पुज से प्रसूतिगृह और अन्तरिक्ष मे चमकने वाले दीपो तथा ग्रहो के तेज को नष्ट कर दिया है, जहाँ सूर्य की भांति उदित हुए, वह यादवकुल रूपी उदयाचल प्रशसा के योग्य है ॥२३॥
इन्द्र इस प्रकार जिनेश्वर की स्तुति करके पुन सिंहासन पर बैठ गया और सेनापति को आदेश दिया कि सुघोपा नामक घण्टा जल्दी बजाओ ।२४।