________________
नेमिनाथमहाकाव्यम् ] पत्रम सर्ग
[ ६६ जिम गर्वान्ध मूढमति ने मेरे सिंहासन को हिलाया है, वह कोन है, जो मेरे वज्र की कोटि रूपी प्रज्वलित दीपक मे पतगे की भांति जलकर मरेगा ॥८॥
यह सोचकर उसने ज्यो ही विद्युल्लताबो के पु ज के समान उस विकराल वज्र को उठाया, जो विपक्ष का क्षय करने के लिये सदैव कटिवद्ध है तथा जिससे निरन्तर चिनगारियां निकलती रहती हैं , त्यो ही सेनापति ने हाथ जोड कर प्रणाम करके कहा-हे स्वामिन् ! मुझ सेवक के रहते हुए आप किसके लिए यह प्रयास कर रहे हैं ? ||६-१०॥
___ स्वामिन् | उम सेवक से क्या लाभ ?, जो आलसी और कायर, उदासीन होकर, अपने स्वामी को सेवक द्वारा करने योग्य काम में लगा हुआ देखता रहता है ॥११॥
हे नाथ | पूज्य स्वामी जिस पर क्रुद्ध हैं, मुझ सेवक को उसके विपय मे वताएं ताकि आपकी कृपा से मैं तुरन्त उससे दिक्पाल की पूजा करू॥१२॥
सेनापति द्वारा ऐसा कहने पर वह चित्तवृत्ति को रोककर एक क्षण योगी की तरह वैठा रहा । तव उम भीपण धनुर्धारी को अवधिज्ञान से ज्ञात हुआ कि प्रभु का पवित्र जन्म हुआ है ।।१३।।
देवराज का वह क्रोध, दुसह होता हुआ भी, प्रभु के दर्शन से ऐसे शान्त हो गया जैसे अमृत के पीने से ज्वर की पीडा और वादल के छिडकाव से जगल की माग ॥१४॥
हे आर्य ! मैं अज्ञानवश आपका अपमान कर बैठा, अत. मेरा यह एक अपराध क्षमा करें। लोग आपको तथा किसी अन्य को रुष्ट करके आपकी ही शरण में आते हैं ॥१५॥
इन्द्र ने प्रभु के सामने अपने पाप का इस प्रकार बखान करते हए उसे निरर्थक बना दिया क्योकि गुरु के चरणो मे अपने पाप को निन्दा करके मनुष्य उससे मुक्त हो जाता है ॥१६॥