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दूसरा परिच्छेद मैं आपकों कैसे भूल सकता हूँ! आपहीके प्रसादसे तो मुझे धर्मकी प्राप्ति हुई है।"
सुमित्रने भी विवेक दिखलाते हुए कहा :-हे चित्रगति : आपने मुझ पर जो उपकार किया है, उसके सामने यह सब किसी हिसावमें नहीं। यदि आपने मुझे जीवन-दानान दिया होता, तो मुझे धर्मप्राप्तिका अवसर ही न मिलता । उस अवस्थामें यह देवत्व तो दूर रहा, मैं प्रत्याख्यान और नमस्कार रहित मनुष्यत्वसे भी वञ्चित रह जातो
.. की इस प्रकार वे दोनों मुक्त-कण्ठसे एक दूसरेकी प्रशंसा कर रहे थे। उनके इस अपूर्व मिलनका दृश्य वास्तवमें ' दर्शनीय था। वहाँ चक्रवर्ती सूर आदिक 'जो विद्याधर . राजा उपस्थित थे, वे भी उन दोनोंकी मुक्त-कण्ठंसे प्रशंसा करने लगे। "चित्रगतिका अलौकिक रूप और गुण देख कर रसवंती भी 'उसपर मुग्ध हो गयी और उसे अनुरागपूर्ण दृष्टिसे देखने लगी।
राजा अनंगसिंह पुत्रीकी यह अवस्था देखकर अपने मनमें कहने लगे -उस ज्योतिषीने जो कुछ कहा था,