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उन्नीसवाँ परिच्छेद
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कर, उसे दीक्षा दिला दी। उस दिनसे ढंढण प्रभुके -साथ विचरण करने लगा और अपनी धर्मनिष्ठाके कारण . वह अनेक साधुओंका प्रियपात्र हो पड़ा ।
इतनेमें उसका अन्तराय कर्म उदय हुआ, इसलिये वह जहाँ जहाँ गया, वहीं उसे आहार- पानीकी कुछ भी सामग्री प्राप्त न हो सकी। उसके साथ जितने मुनि -गये, उन सबको भी इसी तरह निराश होना पड़ा । यह देखकर उन मुनियोंने नेमिभगवानसे पूछा :- "हे स्वामिन्! इस नगरी में धनीमानी, सेठ साहूकार और धार्मिक तथा - उदार पुरुषोंकी कमी नहीं है । फिर भी यहॉपर डंदण मुनिको भिक्षा नहीं मिलती, इसका क्या कारण है ?"
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प्रभुने विचार करनेके बाद कहा :- " एक समय मगध देशके धान्यपूरक नामक ग्राम में पराशर नामक एक ब्राह्मण रहता था । वह राजाका प्रधान कर्मचारी था । इसलिये उसने एकदिन ग्राम्य जनोंको बेगारमें पकड़ . कर उनसे सरकारी खेत जुतवाये । दो पहर में जब भोजनका समय हुआ, तब उन किसानोंके घरसे उनके - लिये भोजन आया, परन्तु पराशरने उनमें से किसीको