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अठारहवाँ परिच्छेद सहिष्णु होते हैं, तब इस देवभोगके योग्य शरीरसे तुम इन्हें कैसे सहन करोगे ?"
नेमिकुमारने कहा-"पिताजी ! उत्तरोत्तर दुःखों के समूहको भोगते हुए नारकी जीवोंको जाननेवाले पुरुष क्या इसे दुःख कह सकते हैं ? तपके दुःखसे तो अनन्त सुख देनेवाले मोक्षकी प्राप्ति होती है और विषयसुखसे तो अनन्त दुःखदायी नरक मिलता है। इसलिये आपही विचार करके वतलाइये कि मनुष्यको क्या करना उचित है ? विचार करने पर यह तो सभी समझ सकते है कि क्या भला और क्या बुरा है, किन्तु दुःखका विषय यह है कि विचार करनेवाले विरले ही होते हैं।"
नेमिकुमारकी यह बातें सुनकर उनके माता पिता, कृष्ण, बलराम तथा समस्त स्वजनोंको विश्वास हो गया, कि वे अब दीक्षा लिये विना नहीं रह सकते, इसलिये सब लोग उच्च स्वरसे विलाप करने लगे। किन्तु नेमिकुमार तो कुञ्जर की भाँति स्नेह-बन्धनोंको छिन्न भिन्न कर अपने वासस्थानको चले गये। यह देख, लोकान्तिक देवोंने प्रभुके पास आकर कहा:-'हे नाथ !