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नेमिनाथ-चरित्र स्वयं ही भोगना पड़ता है। इससे कोई किसीकी रक्षा नहीं कर सकता। यदि आप यह कहें कि पुत्र पिताकी दृष्टिको आनन्द देनेवाले होते हैं, तो मैं कहूँगा कि महानेमि आदिक मेरे कई भाई इस कार्यके लिये विद्यमान हैं। मैं तो बुढ़े मुसाफिरकी भाँति इस संसार . मार्गके गमनागमनसे ऊब गया हूँ। इसीलिये मैं उसके हेतुरूप कर्मोंका अब नाश करना चाहता हूँ। परन्तु दीक्षाके विना यह नहीं हो सकता, इसलिये सर्व प्रथम मैं उसीको ग्रहण करने जा रहा हूँ। हे बन्धो ! आप अब मेरे इस कार्यमें व्यर्थ ही बाधा न दीजिये।" ___ इधर राजा समुद्रविजय भी यह बातें सुन रहे थे, इसलिये वे नेमिसे कहने लगे :-"प्यारे पुत्र ! तुम तो गर्भसे ही ईश्वर हो, किन्तु तुम्हारा शरार अत्यन्त सुकुमार है, तुम इस व्रतका कष्ट किस प्रकार सहन करोगे ? हे पुत्र ! ग्रीष्मकाल की कड़ी धूपका सहना दूर रहा, तुम तो अन्य ऋतुकी साधारण धूप भी बिना छातेके सहन नहीं कर सकते। भूख प्यासका परिषह वे लोग भी सहन नहीं कर सकते, जो अत्यन्त परिश्रमी और कष्ट