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नेमिनाथ चरित्र
उन्होंने हँसते हुए कहा : " हे रुक्मि ! तुम मेरे
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भाईकी पत्नी के भाई हो, इसलिये मारने योग्य नहीं हो !
तुम अब यहाँसे चले जाओ !
मैं तुम्हें जीता छोड़ देता हूँ ।
दण्ड काफी है ।"
तुम्हारा शिर मूँड कर तुम्हारे लिये इतना ही
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इतना कह बलरामने उसे छोड़ दिया । किन्तु रुक्मि अपनी इस दुर्दशासे इतना लज्जित हो गया, कि उसे कुण्डिनपुर जानेका साहस ही न हुआ । उसने वहीं भोजकट नामक एक नया नगर बसाया और वहीं अपने बाल- aant बुलाकर अपना शेष जीवन व्यतीत किया।
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उधर कृष्ण रुक्मिणीके साथ सकुशल द्वारिका पहुँच गये। नगर प्रवेश करते समय कृष्णने रुक्मिणीसे कहा :" हे देवि ! देखो, यही देव निर्मित रत्नमय मेरी द्वारिका नगरी है। यहाँ कल्प वृक्षोंसे विराजित सुरम्य उद्यानमें, तुम्हारे रहनेकी व्यवस्था मैं कर दूँगा। तुम वहाँ इच्छा
नुसार सुख भोग कर सकोगी !"
रुक्मिणीने कहा :- "हे नाथ ! यह सब तो ठीक है, परन्तु आपकी अन्यान्य खियाँ तो बड़े ठाठ बांठके