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दसवाँ परिच्छेद
४२९. तब उन्होंने उस वृक्षकी छायाको स्थिर बना दिया, जिससे उस पर धूप न आ सके।
इतना कर जंभक देवता उस समय तो अपने काममें चले गये, किन्तु काम निपटाकर जब वे उधरसे फिर लौटे तो उस समय भी उस बालकको उन्होंने उसी स्थानमें पाया। स्नेहवश वे इस बार उसे वैताब्य पर्वत पर उठा ले गये। वहॉपर एक गुफामें उन्होंने उसे पाल-- पोस कर बड़ा किया । जब उसकी अवस्था आठ वर्षकी हुई, तब उन्होंने उसे प्रज्ञप्ति आदि विद्याओंकी शिक्षा दी। इसके बाद वही बालक बड़ा होने पर नारदमुनिके नामसे विख्यात हुआ। नारदमुनि अपनी विद्याओंके बल आकाशमें विचरण करते हैं। वे इस अवसर्पिणीमें नवें नारद और चरम शरीरी हैं। नारद की उत्पत्तिका यह हाल मुझे त्रिकालज्ञानी सुप्रतिष्ठ मुनिने बतलाया था। नारद मुनि स्वभावसे कलह प्रिय हैं। यदि कोई उनकी अवज्ञा करता है, तो वे रुष्ट हो जाते हैं। शायद इसी कारणसे उनकी सर्वत्र पूजा होती है। उनकी एक विशेषता यह भी है कि वे कहीं भी एक स्थानमै स्थिरः