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आठवा परिच्छेद पास गये और उससे कहने लगे:- "हे पुत्री ! तुमने यह क्या किया ? दुष्टोंका दमन और शिष्टोंकी रक्षा करना राजाका एकान्त कर्त्तव्य है। उपद्रवियोंसे. रक्षा करनेके लिये ही राजा अपनी प्रजासे कर लेता है। अपराधियोंको समुचित,दण्ड न देनेसे उनका पाप.राजाकेही शिर पड़ता है। इस चोरने राज-कन्याकी रत पिटारी चुरा ली है, इसे दण्ड न देनेसे दूसरे चोरोंका भी हौसला बढ़ जायगा और फिर इस प्रकारके अपराधियों को दण्ड देना कठिन हो पड़ेगा ।-- . .
दमयन्तीने कहा :-"पिताजी ! इसमें कोई सन्देह नहीं, कि अपराधियोंको दण्ड अवश्य देना चाहिये, परन्तु यदि मेरे सामने ही इसका वध किया जायगा, तो मुझ श्राविकाका दया-धर्म किस काम आयगा ? इसलिये मैं आपसे क्षमा प्रार्थना करती हूँ | - यह मेरी शरणमें आया है। इसका चित्कार, इसकी करुण-प्रार्थना सुनकर मैंने इसे अभयदान दिया है। आप भी इसे अभयदान देनेकी कृपा करें। मैं यह उपकार अपने ही ऊपर समशृंगी और इसके लिये आपकी चिरऋणी रहूँगी!" .. .. .