________________
छठा परिच्छेद
तुम्हें किसी कठिनाईका सामना न करना पड़ेगा।" इस'लिये अब आप इसे अपने साथ लेते जाइये । यथा समय इसे अपनीही कन्या समझकर आप इसके व्याहका प्रबन्ध कर दीजियेगा।"
विद्याधरोंकी यह प्रार्थना सुन, मैं उस कन्याके साथ अपने नगर आनेको तैयार हुआ। इसी समय वह देव भी वहाँ आ पहुँचा। उसने हम दोनोंको एक विमानमें बैठाकर, हमारे नगरमें पहुंचा दिया। उसने मुझे बहुतसा सुवर्ण और मणिमुक्तादिक अनेक रत्न भी भेट दिये। इस धनराशिसे मेरा दरिद्र सदाके लिये 'दूर हो गया और मेरी गणना नगरके धनीमानी व्यापारियोंमें होने लगी। सुवह मैं अपने मामा सर्वार्थ और उनकी स्त्री रववतीसे मिला। वे मेरी सम्पन्नावस्था देखकर परम प्रसन्न हुए। तबसे मैं आनन्दपूर्वक यहीं अपने 'दिन व्यतीत करता हूँ। इस प्रकार हे वसुदेव ! यह गन्धर्वसेना मेरी नहीं, किन्तु एक विद्याधरकी कन्या है। इसे चणिक पुत्री समझकर आप इसकी अवज्ञा न कीजियेगा।"