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छठा परिच्छेद
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नरकसे उद्धार पानेपर मैं पाँचवार पशु हुआ और क्रूर ब्राह्मणों द्वारा प्रत्येक चार यज्ञमें मेरा वध किया गया । अन्तिम वार टङ्कण प्रदेशमें मैंने चकरेके रूपमें जन्म लिया और वहाँपर रुद्रद्वारा मेरा वध हुआ । वधके समय चारुदत्तने मुझे धर्मोपदेश दिया, इसलिये मुझे सौधर्म देवलोककी प्राप्ति हुई । इसीलिये चारुदत्तको मैं अपना 'धर्माचार्य मानता हूँ और यही कारण है, कि मैंने इन्हें सबसे पहले प्रणाम किया है। ऐसा करना मेरे लिये उचित भी था ।"
उस देवकी यह बातें सुनकर दोनों विद्याधरोंको परम सन्तोप और आनन्द हुआ । उन्होंने कहा :" चारुदत्त ने जिसप्रकार आप पर यह उपकार किया है, उसीप्रकार एक समय इन्होंने हमारे पिताजीको भी जीवन-दान दिया था । वास्तव में यह बड़े सज्जन और परोपकारी जीव हैं।"
इसके बाद उस देवने मुझसे कहा :- "हे गुरुदेव ! कहिये, अब मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? आप जो आज्ञा दें, वह मैं शिरोधार्य करनेको तैयार हूँ ।"