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दिन दिन निज गुणवद्ध अधिकारी मोहमिथ्यात निकंदजी, एही रीति जथा घट मांही जैसे दुतिया चन्द्र जी । शुद्ध सरूप मे लीन त नाही तबै उपाधि ये विचारजी परम समाधि प्रगट सुख पाया ते ज्ञाता हितकार जी अन्यत्व भावना एही बखानी ते आतम पर उपकारजी सुनोरे प्राणी ते मोक्ष निशानी ते पुग्दल प्रीति निवारजी । अशुचि
शुचपने शरीरा नख शिख सहित परमातमा । सात धातु करि धारया इनसे धरो मत राग । क्षणभंगुर अष्ट कर्मकरि धारया ।
चूरा चन्दन चम्पा वेला वलिए जे शुभ द्रव्या, इन सग कर मल जानिये ।
छट के दिखावो छेला चेतो चेतन, दुर्जन सग बखानिये ।
न्हावण धोवण नित मर्दन अति घना, फूल केशर सिगारिये सिगार बनायो नित्य । विषय रस लोभिया चहुँ गति दुख वधाविया, रोग शोक दुख नाना ।
झरा कर झर झारा । जन्म मरण चहू गति कीता नोको निर्मल देह ||
घट मे सोधे जो, साध सिद्ध पणे लह्या, प्या नहीं धम लाओ लेसा ।
मूढ मति न्यारा, त्यो तन छय छाड्या जी । शरण पर रहो धर्मात्मा, लखे जे शुद्ध माटी आत्मा जो बै आतम आरसी, क्रिया करत शठ घोरा । बाहर शुचिपणे, कर्म विपति फांसे मे पडा ।
देह देवल देवाभिन पूजू भावसू । व्यवहार साधे जिया क्रिया, ममता मदिरा रेता । सम्यक्त झूले से, दासी समझे राखिया, आदि सहनन संस्थाना । भली जे ज्ञाता देह | ससार सागर सू तिरया ॥
आस्रव
आस्रव हेतु रागादी छँ रे, ज्ञानी ने कर, त्याग से, सुज्ञानी द्रव्य आस्रव बध को नहीं रे, राग विषें मत लाग रे, सुज्ञानी अष्ट कर्म जुग बल घणा रे, फैला रह्या लोक माहि रे । सुज्ञानी पण तो बंध सके नहीं रे, सिद्ध अवस्था माहि रे । सुज्ञानी द्रव्य आस्तव बण घणा रे मूढ आत्म भवि आस्रवी रे, पास रहित जो पट अछेरे, राग रहित प्राणी ति केरे,
विषय कषाण अर्धान रे । सुज्ञानी सुख दुखमे रहि लीन रे । सुज्ञानी रंग न लागे चोया रे । सुज्ञानी बन्ध न याये कोय रे । सुज्ञानी
© मुलतान दिगम्बर जैन समाज इतिहास के प्रालोक मे
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