________________
अविरत समकित धार देशव्रती वखानिये । मुनिवर दोय प्रकार, निज निज भेद वखानिये ॥6॥ ये ही साधक जीव, ते साधे शुद्ध आतमा । सम्यक भेद अनेक, सर्व ज्ञान परमातमा ॥7॥
एकत्व एकत्व भावना भावियारे लाल, कर कर्म ते खीन रे सुभागी, मन विच काया थिर करी रे ले आतम गुण लीन । शुद्ध आतम ध्यावता रे लाल, ते कर कर्मन खीनरे । नय निक्षेप तहाँ नहीं रे, न व्यवहार को भेद, त्रय गुण आतम एकता रे, गये शुभाशुभ खेद रे सुभागी। चेतनता प्रगटी थई रे, ज्ञान गुरणे कर वीर, समरथ भाव भरी रे, अर ला निरजन पद धीर । एकत्व भाव करि तरया, आगे जे सरवंग रे। सुभागी वे तो महाविदेह मे, लीजा छ निज रग रे सुभागी चिदानन्द परमातमा रे, ध्यावै छे मुनि जे रे, सुभागी जो नर निश्चय पावसी; लहे अभय पद जीव रे सुभागी। निरविकल्प समाधि मे रे, स्वासन वेदन शुद्ध, श्री वीतराग सुधारसी रे, प्रगटिये निर्मल बुद्ध । ज्ञान गम्य सबगुण अच्छे रे सम्यक धारी जोग, अज्ञानी जाने नहीं रे, कर्म उदय वस भोग । सुभागी गुण अनन्त अपार छ रे, बुद्धि नहीं कहू केम, श्री जिन वचन प्रसाद ते रे, धर्म ऊपर छे प्रेम । वर्द्धमान सुता दीपता रे तीन रतन परधान, इस भावना को चिन्तवो रे कब पाऊ निर्वान । एकत्व भावना भाविया रे लाल, कर कर्म ने खीन रे। सुभागी
अन्यत्व अन्यपने जिया जगमे डोल्यो त जाणे विरला कोय। काललब्धि पाय भविजना सम्यकधारी होय। निश्चयनयतीन काल मे, ते आतम एक स्वभाव जी। पर जाये चहं गति भ्रम्यो, पण न गयो पर भाव जी। जीव स्वभाव रागादिक नाहीं ते मूढमति धर भ्रम्योजी एक स्वभाव करीने मानो ते उदय महाबल कर्म जी । चेतनरूपी ते अलख अरूपी ते ज्ञान सरूपी जान जी। तीन कर्म ते भिन्न पिछानो ते सुख दुख मन मत आनोजी
18 ]
० मुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के आलोक मे