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दर्शन ज्ञान चरित्र मांहिरे, अनुभव एक रस लीन, भेद विज्ञानी जे लखे रे ते ज्ञाता परवीन ॥५॥ प्राणी पहली भावना भाय । पांचो द्रव्यन तै जुदा रे, चेतन उपयोग शुद्ध । राग द्वष पुद्गल तजो रे प्रगटे निर्मल बुद्ध ॥६॥ प्राणी पहली भावना भाय । एकै मनमे किल वसरे, ध्यान पर विषय विकार । श्री योगीन्द्र बखानिया रे, बे खांडे की धार ॥७॥ प्राणी पहली भावना भाय ।
अशरण भावना एक जी प्रातम मेरा, शरना कोई नही तेरा। शरन कोई नही तेरा एक जी आतम मेरा ॥ जन्म मरण चेतन मे नांहीं, ऐसी विधि कर ध्यावो,
एक अरूपी ज्योति सरूपी, निश्चय नय करि पावो ॥१॥ सुख दुख कर्म उदयवश भोगे, सब संसारी प्रारणी।
कर्ता हर्ता कोई न किसका ऐसी जिनवर वारणी ॥२॥ परुषोत्तम अंत केवल ज्ञानी, तिन प्रशरन पद लीधा।
मै मूरख मतिहीन हूं ज्ञानो वल जो कच्चा हीया ॥३॥ विषय कषाय इक त्यागी प्राणी, रागादिक निरवारी।
उदासीन भावना नित भावें, ते ज्ञाता अधिकारी ॥४॥ मन बच काया पुद्गल छाया, निज सरूप मत ध्यावो ।
एक अरूपी ज्योति स्वरूपी, निश्चय नय करि पायो ॥५॥ चरम संहनन दुषमा काले, ध्यान कहां से ध्यावे।
निकट संसारी कर्म विडारी, महा विदेह ते पावें ॥६॥ वर्द्धमान जी पंडित विचारी तास सुता गुण गावे ।
अशरण भावना बीजी भावे, पातम रुचि मन लावे ॥७॥ आतम मेरा सरना कोई नहीं तेरा।
संसार संसरण ते ससार, चेतन पुग्दल मय भ्रन्यो। व्यवहार नय इमि जान, निश्चय निज निज गुण रभ्यो ।।1।। संसार अर नव माय, तरवा सम उद्यम धरो, जिम छाए दुख नास, शिवरमणी सनमुख वरो ।।2।। पांच प्रकार ससार, वार अनन्ता मै लिया। विन सुध आतम भाव, अजथारय बुद्धि सू चाह्या ।।3।। द्रव्य क्षेत्र काल भव भाव, पंच भेद जग जानिये। इनसे रहो रे उदास, शुद्ध आत्म नन आनिये ॥4॥ आप सरूप मे जान, पर बुद्धि मे नहीं लीनता । स्यादवाद परमान, शिवपद साधे धीमता ॥5॥
• मुलतान दिगम्बर जैन समाज-इतिहास के बालोक मे