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महावीर वर्धमान भय से श्रमण लोग लाठी आदि लेकर विहार करते थे, परन्तु फिर भी वे उन के उपद्रव से नहीं बच सकते थे। इतना होने पर भी दीर्घ तपस्वी महावीर ने मन, वचन, काय से प्राणियों को कष्ट न पहुँचाते हुए, शरीर का ममत्व छोड़कर, संग्राम के अग्रभाग मे युद्ध करते हुए निर्भय हाथी की तरह लाढ देश की दुर्जय परीषह सहन की। इस देश में ग्रामों की संख्या बहुत कम थी। जब महावीर किसी ग्राम में पहुंचते तो लोग उन्हे निकाल बाहर करते, अथवा दण्ड, मुष्टि, भाला, मिट्टी के ढेले और ठीकरों से उन्हें कष्ट पहुँचाते और शोर मचाते थे। ये लोग उनके शरीर मे से मास काट लेते और उन पर धूल फेकते थे; उन्हे ऊपर उछालकर नीचे फेक देते और उन्हें उन के गोदोहन, उकडू आदि आसनों से गिरा देते थे। कितनी बार महावीर को गुप्तचर समझकर, चोर समझकर पकड़ लिया गया, रस्सी से बाँध लिया गया, मारा गया, पीटा गया, गड्ढो मे लटका दिया गया, जेलों में डाल दिया गया, और कई बार तो उन्हें फांसी के तख्ते से लौटाया गया।२१
एक बार महावीर तापसो के किसी आश्रम मे एक झोपडी मे ठहरे हुए थे। उस समय वर्षा न होने से नवीन घास पैदा नही हुई थी, अतएव गाँव की गाये वहाँ आकर झोंपड़ी की घास खाती थी। तापम लोग उन्हे डंडों से मारकर भगा देते थे, परन्तु महावीर झोंपड़ी की परवा किये बिना अपने ध्यान में बैठे रहते थे। आश्रम के कुलपति को जब यह मालूम हुआ तो उन्हों ने महावीर को बहुत उलाहना दिया। इस पर महावीर उस झोपडी को छोड़कर अन्यत्र विहार कर गये। उस समय महावीर ने नियम लिया कि जहाँ रहने से दूसरों को क्लेश पहुँचे वहाँ कभी नहीं रहना तथा जहाँ रहना वहाँ मौन और कायोत्सर्ग (खडे होकर ध्यान करना) पूर्वक रहना । एक बार
२१ ध्यान रखने की बात है कि दिगम्बर परम्परा के अनुसार तीर्थकर उपसर्गातीत माने जाते हैं