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[७] अपरिग्रह : मानव री इच्छावां आकास रै समान अनन्त है। एक री पूरति करतां पारण दूजी इच्छा प्राय ऊभी है जावै । दूजी री पूरति करण पर फेरू अनेक इच्छावा पैदा हुय जावै । इणरो नतीजो प्रो हुवै के मिनख री सत-असत् वृत्तियां में संघर्ष होबा लागै। कथनी पर करणी में भेद पड़ जावै । अनन्त इच्छावां री पूरति करण खातर मिनख अनावश्यक जमाखोरी अर धन संग्रह करै। वो आ बात भूल जावै के जां चीजां री उरणनै जरूरत है, उरणारी जरूरत दूजा ने भी हुनै। वो आपणै सुवारथ में आंधो बरण'र चीजां नै एकठी करण लागै। इणरो परिणाम हुवै के समाज में दूजी ठोड चीजां री कमी हुय जानै। इण सू कालाबाजारी बढ़े, समाज में विषमता फैले अर वर्ग-सघर्ष नै बढावो मिले, व्यक्तिगत, सामाजिक पर राष्ट्रीय जीवन असात हुय जानै । इण असांति नै मिटावरण खातर प्रभु महावीर लोगां नै अहिसारै सागै अपरिग्रह रो, परिग्रह री मर्यादा तय करण रो उपदेस दियो।
अपरिग्रह रो प्ररथ है—किणी वस्तु र प्रति प्रासक्ति या ममत्व भाव नी राखणो। प्रो ममत्व भाव या मूर्छा इज परिग्रह है । ज्यू-ज्यू मूर्छा भावना बढे त्यू-त्यूमिनख रै प्रातम विकास रो मारग रुकै, उरणरी ज्ञान अर विवेक री ज्योति नष्ट हुनै । मिनख सुवारथ पर लोभ में आँधो बण जानै। ममत्व भाव जरूरत सू बेसी चीजा जमा करण री प्रेरणा दे। बेसी नीजां जमा करण खातर, बत्तौ धन कमावण खातर मिनख अन्याय करै, राजनियमां रो उल्लघन कर'र बेजां फायदो उठानै। इण भांत ज्यू-ज्यू वीं नै लाभ मिलै त्यू -न्यू वीरोलोभ बढ़तो जावै । पण फेरू मिनख नै संतोष अर तृप्ति नी हुनै । उणरी इच्छा और बत्तौ लाभ कमावण री रैवे । माकडी रै जाळा री भांत मिनख लाभ पर लोभ र चक्कर में फंसतो जानै। जिसू वीने आत्मिक सांति रै बजाय असांति मिले,