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म. वी. राज्यादिसे विरक्त हुआ गनमें ऐसा विचारने लगा । अहो खेदकी वात है कि मुझ पु. भा.
अज्ञानी ( मूर्ख ) ने संसारके अच्छे २ विषयभोग सेवन किये तो भी इंद्रियसुखोंसे मुझे ॥३१॥
हसा कुछ भी वृप्ति नहीं हुई । इस लिये जो जीव विपयोंमें लीन होकर भोगोंके सेवनेसे
तृष्णाकी शांति चाहते हैं वे मूर्ख तेलसे आगको शांत करना चाहते हैं । यह जीव जैसे २ भोगोंको अत्यंत भोगता है वैसी २ तृष्णा बढ़ती जाती है जिस शरीरसे यह भागों-४ को सेवन करता है वह महा दुर्गंधमयी सार रहित मलमूत्रकीड़ाओंका घर है। | यह राज्य भी सब पापोंका कारण धूलिके समान है, स्त्रियां पापोंकी खानि हैं और विंधु वगैरेःकुटुंबी बंधनके समान हैं । लक्ष्मी वेश्याके समान धुद्धिमानोंकर निंदनीक है, हावियोंका सुख हालाहल जहरके समान है और दुनिया में जितनी चीजें हैं वे सब क्षण
भंगुर हैं। बहुत कहनेसे क्या फायदा बस तीन जगतगे रत्नत्रयके सिवाय दूसरा तप नहीं है और न हितकारी है। इसलिये अब मैं ज्ञानरूपी तलवारसे अशुभ मोहका जाल काटकर मोक्षके लिये जगत्पूज्य जिनदीक्षाको धारण करूं । अवतक मेरे दिन संयमके। विना वृथा गये, विपयोंमें लगा रहा। अब व्यर्थ समय नहीं खोना चाहिये । ऐसा विचार भकर अपने सर्वमित्र नामके पुत्रको राज्य देकर रत्न निधि वगैरः संपदाओंको पुराने है। ॥३१॥
तृणके समान छोड़ता हुआ।