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सर्वोदय-तथ
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एकान्तसिद्धान्त के छप्परको सम्भालनेके लिये उसके नीचे तरहतरह की टेवकियाँ ( थूनियाँ ) लगानी पड़ी हैं; परन्तु फिर भी वे उसे सम्भाल नहीं सके और न अपने सर्वथा - एकान्त सिद्धान्तको किसी दूसरी तरह प्रतिष्ठित करनेमें हो समर्थ हो सके हैं। उदाहरण के लिये अद्वैत एकान्तवादको लीजिये, ब्रह्माद्वैतवादी एक ब्रह्मके सिवाय दूसरे किसी भी पदार्थका अस्तित्व नहीं मानते - सर्वथा अभेदवादका ही प्रतिपादन करते हैं-उनके सामने जब साक्षात् दिखाई देनेवाले पदार्थ-भेदों, कारक-क्रिया-भेदों तथा विभिन्न लोक व्यवहारोंकी बात आई तो उन्होंने कह दिया कि 'ये सब मायाजन्य हैं' अर्थात् मायाकी कल्पना करके प्रत्यक्षमें दिखाई पड़ने वाले सब भेदों तथा लोक व्यवहारोंका भार उसके ऊपर रख दिया । परन्तु यह माया क्या बला है और वह सत्रूप है या असतरूप, इसको स्पष्ट करके नहीं बतलाया गया । माया यदि असत् है तो वह कोई वस्तु न होनेसे किसी भी कार्यके करने में समर्थ नहीं हो सकती। और यदि सत् है तो वह ब्रह्मसे भिन्न है या भिन्न है ? यह प्रश्न खड़ा होता है। अभिन्न होनेकी हालत में ब्रह्म भी मायारूप मिथ्या ठहरता है और भिन्न होनेपर माया और ब्रह्म दो जुदी वस्तुएँ होनेसे द्वितापन्ति होकर सर्वथा । अद्वैतवादका सिद्धान्त बाधित हो जाता है । यदि हेतुसे अद्वैतको सिद्ध किया जाता है तो हेतु और साध्यके हो होनेसे भी द्वैतापत्ति होती है और हेतुके बिना वचनमात्रसे सिद्धि माननेपर उस वचनसे भी द्वैतापत्ति हो जाती है। इसके सिवाय, द्वैतके बिमा अद्वैत कहना बनता ही नहीं, जैसे कि हेतुके बिना अहेतुका और हिंसा बिना हिंसाका प्रयोग नहीं बनता । श्रद्वैतमें द्वैतका निषेध है, यदि द्वैत नामकी कोई वस्तु नहीं तो उसका निषेध भी नहीं बनता, द्वैतका निषेध होनेसे उसका अस्तित्व स्वतः सिद्ध हो जाता है। इस तरह सर्वथा अद्वैतवादकी मान्यताका विधान