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महावीरका सर्वोदयतीर्थ बोते और एक दूसरेके दुःखका कारण बने हुए थे। उन्हें हाथीके सब अंगोंपर दृष्टि रखनेवाले सुनेत्र पुरुषने उनकी भूल सुझाई थी
और यह कहते हुए उनका विरोध मिटाया था कि 'तुमने हाथीके एक-एक अंगको ले रक्खा है, तुम सब मिल जाओ तो हाथी बन जाय-तुम्हारे अलग-अलग कथनके अनुरूप हाथी कोई चीज़ नहीं है।' और इसलिये जो वस्तुके सब अंगोंपर दृष्टि डालता है-उसे सब ओरसे देखता और उसके सब गुण-धर्मोको पहचानता है-वह वस्तुको पूर्ण तथा यथार्थ रूपमें देखता है, उसकी दृष्टि अनेकान्तदृष्टि है और यह अनेकान्तदृष्टि ही सती अथवा सम्यग्दृष्टि कहलाती है और यही संसारमें वैर-विरोधको मिटाकर सुख-शान्तिकी स्थापना करने में समर्थ है। इसीसे श्री अमृतचन्द्राचार्यने पुरुषार्थसिद्धयुपायमें अनेकान्तको विरोधका मथन करनेवाला कहकर उसे नमस्कार किया है। और श्रीसिद्धसेनाचार्यने 'सम्मइसुत्त में यह बतलाते हुए कि अनेकान्तके बिना लोकका कोई भी व्यवहार सर्वथा बन नहीं सकता, उसे लोकका अद्वितीय गुरु कह कर नमस्कार किया है ।
सिद्धसेनका यह कहना कि 'अनेकान्त के बिना लाकका व्यवहार सर्वथा बन नहीं सकता सोलहों आने सत्य है । सर्वथा एकान्तवादियों के सामने भी लोक-व्यवहारके बन न सकने की यह समस्या रही है और उसे हल करने तथा लोक-व्यवहारको बनाये रखनेके लिये उन्हें माया, अविद्या, संवृति जैसी कुछ दूसरी कल्पनायें करनी पड़ी है अथवा यों कहिये कि अपने सर्वथा
परमागमस्य बीजं निषिद्ध-जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । सकल-नय-विलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ ® जेण विणा लोगस्सवि ववहारो सन्वहा ण णिव्यडइ । तस्स भुषणेकगरुणो णमो अणेगंतवायस्स ॥६॥