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निश्चय व्यवहार समन्वित ही निज गृहण पूर्वक त्याग कहा । अपने से बाहिर जाना ही शुभ-अशुभ रूप मय राग कहा ।।
(१०) यह भेद ज्ञान की कला तुम्हे सम्यक पथ पर लाने वाली। इसका अभ्यास करो प्रतिक्षण जो कर्मों को ढाने वाली।
तुम मासाहार तजो पहिले फिर अणुव्रत पालन कर लेना। लेकर समाधि फिर अत समय जिन भक्ति हृदय मे धर लेना।
(१२) ससार शरीरो भोगो मे नश्वरता है अशरणता है। एकत्व त्रिकाली शुद्ध प्रीव्य अपवित्रा अन्य वरणता है ।।
(१३) पाप पुण्य के आश्रव तो चेतन का वधन करते हैं। इसलिये हेय इनको मानो कर्मों का सर्जन करते है।
है धर्म सुसंवर स्वय पुरुषार्थ निर्जरा का करता। फिरलोक भ्रमणका कर विचारनिजबोधि भाव मन मे धरता।।
दश धर्म रूप रत्ननय ही यह जैन धर्म कहलाता है। जो परम अहिसा धर्म नाम से जग में जाना जाता है।
(१६) मृति वचनो पर श्रद्धा करके, आत्मा का ज्ञान विवेक जगा। सम्यक् दृष्टी के दर्शन से लो युग-युग की मिथ्यात्व भगा।
अव उदासीन श्रावक सा रह वह अपना समय विताता था। अपने भव-भव के कृत कर्मों पर, बार बार पछताता था।