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सिह-संबोधन
पर्याय सूढता के द्वारा तुम तो अनादि से भटक रहे । तुम आत्म-विपर्यय होकर ही चहुँ गति में आधे लटक रहे ।।
(२)
अब अपनी सम्यक् दृष्टि करो, अपने स्वरूप को पहिचानो। त्रैलोक्य धनी तुम 'महावीर' यह दिव्य-दृष्टि द्वारा जानो।
(३) मिथ्यात्व सरीखा पाप नही सम्यक्त्व सरीखा धर्म नही । शोभा तुम को दे सकता है इस हिंसा का अव कर्म नहीं ।।
(४) श्री ऋषभदेव के युग से ले भव भव मिथ्यात्व रचा तुमने । पाखण्डवाद को फैलाकर वस आत्म वचना की तुमने ।।
पिछली पर्याय मत देखो मत देखो अगली परवायें। उनका इतिहास देखने से पैदा होती आकुलताये ।
(६) यद्यपि सिंह की पर्याय तुम्हे जो वर्तमान में प्राप्त हुई। वह तीव्र कपायी भावो की रचना तन मन मे व्याप्त हुई।
(७) अव वर्तमान मे सावधान होकर स्वरूप को पहिचानो। तिर्यञ्च क्रूर तुम सिह नही यह दिव्य-दृष्टि द्वारा जानो।
(८) सशय विभ्रम को छोड वनो हे चेतन तन से निर्मोही। नि शकित होकर पालो तुम सर्वज्ञ निरूपित दोनो ही ।।
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