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स्थावर द्विज माहेन्द्र स्वर्ग में
(मारीच जीव स्थावर द्विज के अज्ञानतपसे)
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आयु पूर्ण कर स्वर्ग चतुर्थे पाई विप्र ने सुर पर्याय । क्योकि स्वर्ग सुख दे सकती है विन समकित ही मद कपाय ।। लाखो शून्य इकट्ठे होकर नहीं बने है कभी इकाई । लाखो पुण्यो ने मिलकर क्या कभी धर्म की सजा पाई ? ।।
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