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पावन पावापुर की धरती, धन्य धन्य उसका उद्यान । देवेन्द्रो ने जहाँ मनाया, कल्याणक उत्सव निर्वान ॥
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मणिमय शिविका में स्थित वह, प्रभु की परमौदारिक देह । पूजन-अर्चन कीर्ति-सुरभि से, लोक व्याप्त थी निः सन्देह ।।
२३६ अग्निकुमार देव नत मुकुटोद्वारा, प्रकटित हुई कृशानु । उसके द्वारा दग्ध हुये उनके, कर्पूरी तन परमानु ।।
२४० फिर विभूति-रज लौकिक जन, के माथो का श्रङ्गार बनी । पावापुर के रम्य जलाशय, का आगे आधार बनी ।।
२४१ रत्नवृष्टि करके देवों ने, पावापुर जगमगा दिया । कार्तिक कृष्ण अमावश निशिका, मोह महातम भगा दिया ।।
૨૪ર तब से अब तक लौकिक युग ने, यहाँ मनाई दीपावलिया । वीर-चरण में इस प्रकार की, सतत समर्पित श्रद्धाञ्जलिया ॥
२४३ केवल ज्ञान मोक्ष लक्ष्मी की, पूजन वर्द्धमान पूजन है । लौकिक लक्ष्मी की उपासना, भव-भव दुखकारी बन्धन है ।।