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२३१ विद्युत चर से चोर तथा, अर्जुनमाली से डाकू निर्दय । आत्म समर्पण वीर चरण मे, करके वने मुनीश्वर निर्भय ॥
२३२ श्रावक था आनन्द नाम का, भूमि और पशु-धन का स्वामी । कर प्रमाण परिग्रह का वह, वना वीर प्रभु का अनुगामी ।।
२३३ इस प्रकार प्रभु वीतराग के, परम अहिंसा मयी धर्म से । हुआ प्रभावित सारा ही युग, जिन-शासन के गूढ मर्म से ।।
महावीर श्री का परिनिवणि महोत्सव
एवं दीपावली का शुभारम्भ
- २३४ तीस वर्ष तक महावीर श्री, ने सव जीवो को संवोधा । और एक दिन पावापुर के, उपवन में आ योग निरोधा ॥
कार्तिक कृष्ण अमावस की थी, सु-प्रभात वह मगल वेला । सिद्धालय में हुआ विराजित, सन्मति प्रभु का जीव अकेला ॥
२३६ । अष्ट कर्म कर नष्ट सिद्ध पद, पाजाते हैं त्रिशला-नन्दन । ज्ञान शरीरी सिद्ध प्रभू के, चरण-कमल में शत शत वन्दन ।।