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२१७ केवल ज्ञाता-दृष्टा रह कर, पुण्य-पाप के देखो खेल । हर्ष-विषादो की लहरोको, समता-सागर वन कर झेल ।।
२१८ अष्ट कर्म पर विजय प्राप्त कर, लेना है उत्तम पुरुषार्थ । नही बैठना भाग्य भरोसे, कर्मवाद सिद्धान्त यथार्थ ।।
२१६ सग्रह और परिग्रह धन का, है तृष्णा का घृणित स्वरूप । पर पदार्थ से भिन्न सर्वथा, परम अकिंचन है चिद्रूप॥
२२० आवश्यक्ताओ की मर्यादाओं, से बाहर जाना। घोर पाप है यहाँ स्वार्थ, मय विषमताओं का उपजाना ।।
देश-विदेश में वीरश्री की पद यात्राएं
२२१ अर्हत्केवली वर्द्धमान का, प्रवचन हेतु विहार हुआ । वैशाली वाणिज्य ग्राम मे, समवशरण तैयार हुआ।
२२२ अंग कलिंग सुकौशल अश्मक, मालव हेमागद पाचाल । वत्स दशार्णव सौर देश मे, समवशरण था रचित विशाल ।।
२२३ इस चैतन्य क्रान्ति की लहरों, ने युग का प्रक्षाल किया । भीगा रस से कोना कोना, लोकत्रय खुशहाल किया ।