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आत्मा को प्रतिकूल लगे जो, ओरो को भी वह प्रतिकूल । नही चुभाओ अत किसी को, कभी दुख हिंसा के शूल ॥
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२१०
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अपने वीतराग चेतन मे, राग-द्वेष का प्रादुर्भाव । खुद की हिंसा करने वाला, कहलाता है हिंसक भाव ||
२११
उसी भाव हिंसा के द्वारा, औरों की हिंसा सकल्पी उद्यमी विरोधी, आरम्भी हिंसा
२१२
है अनन्त गुण सत्ता वाला, जड चेतन प्रत्येक हर पहलू से उसे देखना ही, से उसे देखना ही
है
सम्यग्दृष्टि
२१३
करना ।
कहना ॥
पदार्थ ।
यथार्थ ॥
स्याद्वाद का सत्य कथञ्चित्, मुख्य गोणता पर निर्भर । पूरक वन कर वहा रहा है, धर्म समन्वय का निर्झर ॥ २१४
साम्यवाद या सर्वोदय का, जीता जगता उदाहरण । था समाजवादी रचना मय, महावीर का समवशरण ॥
२१५ भेद भाव से भिन्न आत्मा, पृथक लोक व्यवहारो से । लिये, निश्चयत विविध प्रकारो से ॥
परमातम का रूप
२१६ जैसी करनी वैसी भरनी, यही कर्म का नियत विधान । पुण्य-पाप के फल सुख-दुख हैं, जानो जग को कर्म प्रधानं ॥