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सर्वज्ञ केवली हुये वीर, फिर भी दिव्यध्वनि नही खिरी । छियासठ दिन यद्यपि बीत गये, फिर भी मौनी हैं वीर श्री ॥
१६५ सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र शीघ्र, इसका रहस्य जव जान चुका । तब वृद्ध विप्र का स्वांग बना, गुरु कुलाचार्य के निकट रुका है। १९६
जो पच शतक निज शिष्यो को, वेदान्त पढाया करता था । निज विद्या प्रतिभा का मिथ्या, वस दभ सदा ही भरता था । १६७ उस युग ने लोहा माना था, उसके अकाट्य शास्त्रार्थों का । था याज्ञिक क्रिया काड वेत्ता, ज्ञाता था नाना अर्थों का ॥ १६८
हो ज्ञान अल्प अथवा अतिशय, पर यदि उसमे सम्यकता है । तो वन्दनीय वह देवो से, वरना वह कोरा मिथ्या है ॥ १६६ था 'इन्द्रभूति' गौतम बहुश्रुत, आचार्य किन्तु मिथ्यात्वी था । पर गणधर होने योग्य पात्र, वस एक मात्र वह द्विज ही था ।
२०० जिनवर वाणी जो झेल सके, उस युग का ऐसा योग्य पात्र । सौधर्म इन्द्र की प्रज्ञा में, था इन्द्रभूति ही एक मात्र ॥ २०१ इसलिये वृद्ध का स्वाँग वना, वह इन्द्र विप्र को ले आया । उस समवशरण की ओर जहाँ, था मानथम्भ उन्नत काया ||