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उस अभागिनी दासी ने जव महा श्रमण को पडगाहा । टूटी जजीर गुलामी की, देवो ने सोभाग्य सराहा ॥
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कोदो के दाने खीर बने, फिर निरन्तराय आहार हुआ । पचाश्चर्य चन्दन दासी का, सचमुच पतितोद्धार हुआ ।।
अरहंत परमेष्ठी सर्वझ महावीर,
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द्वादश तप द्वादश वर्षों तक करते रहे श्रमण भगवान् । शुक्ल ध्यान से क्षपक श्रेणि, चढ पहुँचे बारहवें गुण थान ॥
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प्रकृति तिरेसठ कर्म घातिया, किये नष्ट अरिहत हुये । तैकालिक त्रैलोक्य विलोकी, वें केवलि भगवत हुये ॥ १८५ ऋजुकुला सरिता के तट पर, महावीर सर्वज्ञ बैसाखी शुक्ला दशमी को, देवोत्सव भी हुये
वीरश्री की विराट् धर्म-सभा की अलौकिक छटा
वने ।
घने ॥
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देवेन्द्रो द्वारा रचित सभा मंडप वैभव युत समवशरण । ar गोलाकार प्रकोट सहित विस्तृत सर्वोदय का कारण ।।
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