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१६६ क्रोधित होकर ज्यो ही उसने डसा, वीर-प्रभु के मृदु-पग में । लगी निकलने धार दूधिया, त्यो ही अगूठे की रग मे ।।
सौंप गया वह पशु गण अपने, महावीर को चरवाहा था । आकर वापिस ले लूंगा मैं, उसने ऐसा ही चाहा था ।
१६८ किन्तु मौन ध्यानस्थ वीर को, इन बातो से था क्या मतलब ।। अत दुष्ट ने कर्ण युगल मे, कीला ठोक दिया ही था तव ।।
ग्यारहवाँ भव' रुद्र वीर के, तप की कठिन परीक्षा लेने । उज्जयिनी के श्मशान मे, जोर जोर से लगा गरजने ।।
१७० विविध भयावह विद्रूपो से, तथा सहस्र सेनाओ द्वारा । शेर - वाघ - चीते - मायावी, आधी - वर्षा - मूसल धारा ।।
१७१ कान - खजूरे - विच्छू - विषधर, डाँस आदि तन पर लिपटाये ।। रुद्र देव कृत उत्पातो से, किन्तु 'वीर' नहिं रच डिगाये ॥
१७२ धीर-वीर-गभीर - सौम्य थी, शान्त सहिष्णु वीर की मुद्रा । आत्म शक्ति से हार गई थी, क्षुद्र रुद्र की माया रुद्रा।।
१७३ । रुद्र रौद्र परिणामो द्वारा नरक, आयु का पान हो गया । सु-विख्यात अति वीर नाथ का, तप कर स्वर्णिम गान हो गया।