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संज्ञी पचेन्द्रिय पशु होकर, लघु जीवो का किया शिकार । स्वय दीन कातर होने पर, बना सशक्तो का माहार ।।
छेदन-भेदन-क्षुधा - पिपासा, की पीड़ाये क्या कहना ? । सर्दी - गर्मी-वोझा ढोना, वध बन्धन परवश सहना ॥
७१ पुण्य योग से नर भव पाया, किन्तु न पाई मानवता । इसीलिये दुख सहे अनेको, गर्भ जन्म एव शिशुता ॥
७२ बालकपन मे-खेलकूद मे, सारा समय व्यतीत हुआ । भोग विलासो भरी जवानी मे, कुछ भी न प्रतीत हुआ।
इस प्रकार मारीचि जीव का, क्रमशः हुआ हास पर हास
वूढी सव हो गई इन्द्रियाँ, किन्तु वासना रही जवान । मरघट मे पग लटक गये पर, आया नही धरम का ध्यान ।।
७४ इस प्रकार मारीचि जीव का, क्रमशः हुआ ह्रास पर हास । हीन हीन पर्यायो का है, लज्जा जनक निम्न इतिहास ।
७५ डेढ हजार अकौआ की थी, सीप योनि अस्सीय हजार । नीम और केला तरु की थी, सहस बीस नव क्रम अनुसार ॥
तीस शतक चन्दन तरु एव, पच कोटि भव हुये कनेर । वेश्या साठ हजार वार बन, पाच कोटि तन धरे अहेर ।।