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६१
आयु पूर्ण कर स्वर्ग चतुर्थे, पाई विप्र ने सुर पर्याय । क्योकि स्वर्ग सुख दे सकती है, विन समकित ही मंद कषाय ॥
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६२
पृथ्वी - जल की अग्नि वायु की, वनस्पति की वादर काय । अपर्याप्त पर्याप्त असख्यात पर्याय ||
रूप
से, धारी
पृथ्वी कायिक में जल कायिक मे भोगी
६३
भोगी, उत्कृष्ट आयु वाईस हजार । थी, उत्कृष्ट आयु पुनि सात हजार ॥
उम्र तीन दिन-रात वायु काय का जीव
૬૪
रही, कई बार अग्नि कायिक होकर । हुआ, यह तीन हजार वर्ष सोकर ||
६५
दस हजार वर्षों तक थी, प्रत्येक वनस्पति की उच्चायु । ईंधन - राधन - काटना - छेदन, भेदन दुःख सहे निरुपायु ||
६६
लट-चीटी भँवरा विकलत्रय, द्वय तय चतुरिन्द्रिय के जीव । चिन्तामणि सम दुर्लभ है तस, जिसमें रह दुख सहे अतीव ॥
६७
कुचले पीसे गये प्रवाहित हुये अग्नि में भस्मीभूत | खाये गये पक्षियो द्वारा, सहे दुःख मारीचि प्रभूत ||
६८
पचेन्द्रिय जव हुआ असैनी, हित अनहित का नही विवेक । ज्ञान अल्प था - मोह तीव्र था, धर्म हीन दुख सहे अनेक ||