________________
नर्क-निगोद-तिर्यक-सुर गति में, होकर त्रस-स्थावर । साठ लाख पर्याये पाता, है मारीचि बराबर॥
वचनातीत सहे दुख इसने, स्पर्शेन्द्रिय जन्म-मरण फिर हुये अठारह, एक स्वाँस
होकर । के भीतर ॥
आलू-शकरकंद-लहसुन मे, फिर उपजे फिर और मरे । एक देह मे ही अनन्त अक्षर, अनन्तवाँ ज्ञान धरे॥
सिद्धो का सुख एक ओर था, उससे उतना ही विपरीत । दुख निगोद मे नरको से भी, अधिक सहा था वचनातीत ॥
आर्त-रौद्र मोहित परिणामो, के फल नरको मे भोगे । खून-पीव की वैतरिणी मे, पहिन वैक्रियक चोगे ।।
एक साथ विच्छू सहस्र मिल, मानो डक मारते हो । सेमर-तरु के पत्ते-पत्ते, भी तलवार धारते हो।
आपस मे लड टुकड़े-टुकड़े, किये “देह के परावत । ले समुद्र की प्यास बूद को, भी तरसा वह मिथ्यामत ॥
जन्म-मरण के साठ लाख, तक कष्ट अनन्ते काल सहे । शुभ कर्मों से शाडलीक के, स्थावर द्विज बाल रहे।