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हुए तीस वर्ष गुजर गए, पर स्फटिक के समान स्वच्छ सरल हृदय मे लालसा की कालिमा जरा भी न लग पाई थी, यह सब ब्रह्मचर्य व्रत का अनुपम प्रभाव था ।
वर्द्धमान को वीरता ( विवाह से इन्कार )
एक दिन बड़ी-बडी उमगो को हृदय मे छिपाये महारानी त्रिशला पुत्र के पास पहुँची और युवराज वर्द्धमान कुछ कहे कि . उसके पूर्व ही उन्होने विवाह का सुन्दर प्रकरण उनके समक्ष रख दिया, पहले तो महावीर मुस्कराये, बाद में उन्होने सूखी हँसी-हँसकर अपना मस्तक झुका लिया, पर जब वही प्रश्न उनके समक्ष फिर दुहराया गया तो उन्होने अपनी माता से विनम्र शब्दो मे विनय की
" कि इस संसार मे सर्वत्र आकुलता ही आकुलता व्याप्त है । मिथ्यात्व और काल्पनिकता की रेतीली दीवारो पर यह ससार टिका हुआ है, अन्याय और अत्याचार, विषमताएँ और भ्रष्टाचार अपना नंगा नाच दिखा रहे हैं । यह सब वातावरण देखकर मेरी अन्तरात्मा इन सब दृश्यों से विरक्ति चाहती है । आत्मनिष्ठा के सत्य को पहचान कर ही मैं अब उसकी साधना करना चाहता हूँ । दुनिया के दलदल में फँसकर यह साधना नितान्त असभव, है अत. हे माताजी मुझे विवाह करने से सर्वथा इन्कार है ।" इस प्रकार अपने हृदय में धर्म प्रचार का जोश लाकर तथा सयम के द्वारा इच्छाओ पर अकुश लगाकर वैभव से मुख मोडकर सबंधियो से नाता तोडकर उन्होने बारह भावनाओ का चितवन किया । जिनका कि अनुमोदन देवो ने भी आकर किया ।
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वैराग्य और दीक्षा
मायावी दुरंगी दुनिया से चित्त को हटाकर वर्द्धमान ने राज