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पाट और घर-बार को छोड दिया और ज्ञातृवनखड नाम के वन मे जाकर मगसिर कृष्णा दशमी के दिन स्वाभाविक नग्न दिगम्वर भेष को ग्रहण कर सिद्ध परमात्मा को साष्टाङ्ग नमस्कार करने के बाद आत्मस्वरूप मे लीन हो गये । ध्यान लगाते ही योगो की प्रवृत्तियो को रोकने से उसी समय दूसरो के मन की बात को जान लेने वाला चौथा मनः पर्यय ज्ञान उत्पन्न हो
गया ।
वर्द्धमान को अतिवीर की उपाधि
जिस समय विहार करते हुए महावीर स्वामी उज्जैन नगरी की ओर आये, उस समय ११ वे रुद्र ने बड़ा भारी उपसर्ग किया था, पर वे अपने ध्यान से जरा भी विचलित नही हुए । उनकी दृढता - त्याग और तपस्या को देखकर महादेव (रुद्र) का मान विगलित हो गया और महावीरश्री के समक्ष आकर नमस्कार करने के बाद उसने उन्हे अतिवीर कहकर प्रार्थना की ।
महावीर स्वामी के विरोधी दुष्ट पाखडियों ने समय-समय पर उन पर भारी अत्याचार किये लेकिन उन्होने उन अत्याचारो की जरा भी रोक-थाम नही की और वे एक वीर सेनानी की तरह अन्त तक वार पर वार सहते ही गये । महावीरश्री ने अपना दयालु गुण नही छोडा पर विरोधियो को अपने विचारों मे परिवर्तन कर लेना पड़ा, अनेक असह्य उपसर्गों को सहन - करते हुए महावीरश्री ने इसी तरह वारह वर्ष विता दिये । महावीरश्री की जीवन मुक्त-अवस्था
अनेक निर्जन बीहड वनो - भूधर कन्दराओ-वृक्ष के खोखलों मे सर्वोच्च आध्यात्मिक पद प्राप्ति के लिए उग्र तप तपते हुए महावीर जव ऋजुकूला नदी के तट पर अवस्थित जृम्भक ग्राम