________________
११६
भोग की वस्तु ही उसको करार दिया था परन्तु दूसरी ओर भी यज्ञो मे तिलमिलाते हुए प्राणियो की चीखे, शूद्रो और अवलाओ का आर्तनाद तथा दलितो की एक २ आहे साकार क्रान्ति वनती जा रही थी । तात्पर्य यह कि कृत्रिमता के वितान मे वास्तविकता छिप गई थी परन्तु प्रकृति के नियम के अनुसार इन समस्त अत्याचारो-पापाचारो के विरुद्ध मोर्चा लेने वाला एक ऐसा परोक्ष वर्ग नैतिक आधार पर तैयार हो रहा था कि जिसके जवरदस्त प्रहारो ने उस अशान्त वातावरण को शताब्दियो पीछे धकेल दिया ।
आज का युग जो कि अहिंसा और शान्ति की सत्यता पर विश्वास करने लगा है - सब उसी वर्ग का उसी क्रान्ति का सुखद परिणाम है । उस वर्ग मे विश्व के कोने २ से उठने वाले महापुरुष योरोप के पाइथोगौरिस, एशिया के कन्फ्यूसस लाओत्स आदि उस वर्ग मे सम्मिलित होकर जहाँ क्रान्ति के धीमे २ नारे लगा रहे थे वहाँ भारत मे भ० महावीर की अहिंसा का एक बुलन्द नारा उन पाखडी पडो के हृदयो मे सहस्रो भालो सा छिदता था । महात्मा बुद्ध भी यद्यपि इस क्रान्ति के नेता कहे जा सकते हैं किन्तु तवारीख के पन्ने बतलाते है कि वे भगवान महावीर की तुलना मे गौण थे ।
वीरावतरण
प्रकृति के निश्चित नियम के अनुसार जब-जब अधर्म का दुष्प्रचार और धर्म का ह्रास होता है, "जीवो जीवस्य भक्षण" का अहितकारी सिद्धान्त जोर पकडता है । शान्ति के स्थान को अशान्ति और परोपकार के स्थान को स्वार्थं हथिया लेता है, उस समय प्राणियो के पिछले किन्ही शुभ कर्मोदय से कोई न कोई महान् शक्ति इस मर्त्यलोक मे अशान्त वातावरण को शान्त
-