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प्रगति की दुल्हन आरती लिए खड़ी है प्रेम का दो सम्बल आशीष की सुहाग विदी दो उसे स्वीकारो मानव हो, मानव की तरह मानव को निहारो वीर की वाणी को अन्तस् मे उतारो श्रद्धा से करो नमन, वन्दन, अर्चन, मिथ्यात्व को मारो
आत्मा का गणतंत्र श्री फूलचन्द जी पुष्पेन्दु
केन्द्रीभूत हुई सत्ताएँ-तथा कथित ईश्वर में । किया विकेन्द्रीकरण-उन्ही का हर आत्मा के घर मे ।। राज्य नही, गणतत्र नही, अब प्राणिमात्र अनुशासनछाया समवशरण सर्वोदय तीनो लोको भर में ॥१॥ यह स्वतन्त्रता-युद्ध वदल जाए यदि मुक्ति-समर मे। तो फिर सच्चा साम्यवाद भी आ जाए क्षण भर में ।। हो सहयोग स्वावलवन पूर्वक समाज की रचना । यदि समष्टि की हर इकाई स्थित हो आत्म अमर मे ।।२।।