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विरोध भास स्तुति
रचयिता - श्री फूलचंद जी पुष्पेन्द्र खुरई
(१) वीर में वीर रस तो वहा ही नही - जिन्दगी भर करुण रस प्रवाहित रहा । खून था ही नही, इसलिए दूध हीदूध उनकी रगों मे निरन्तर बहा ॥
(२)
युद्ध अथवा महायुद्ध देखे नही
जीतने की उन्हें वात ही दूर थी । शत्रुता थी नही एक भी जीव सेशूरता वीरता आदि मजबूर थी ||
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(३)
सिंह के लक्षणो से समायुक्त थे -
पाशविकता नही किन्तु छू भी गई । जगलो मे रहे जगली थे नही
नग्नता सभ्यता रूप परणित हुई || (४)
वीर गति मिल चुकी है महावीर को -
मिल चुकी है उन्हें आत्म स्वाधीनता । वीर-शासन अहिसामयी दिख रहा -
वीर चक्राकिता सत्य - शालीनता ॥