________________
भ० महावीर के भक्तों के प्रति श्री दुर्गादीन जी श्रीवास्तव एडवोकेट 'बागी'
खुरई (सागर) म०प्र० मैं जगती का जीव अकिचन । महा अपावन भ्रष्ट स्वभावी। हे सन्मति | सब भक्त तुम्हारे । हुए वीर एव मेधावी ॥ १ ॥ -
भक्त वही जो जिन वाणी को। वाणी में-जीवन मे ढाले । उपदेशो के पहिले खुद ही। उनको निज कृत्यो मे पाले ॥ २ ॥
जियो और जीने दो स्वर के । वीतराग मय शाश्वत पथ पर ।। निर्विकार व्यापार रहित जो। वने आत्म-हित नग्न दिगम्बर ।। ३ । । कमल कीच सदृश्य आत्मा। लिप्त नही है जड शरीर से । महावीर हे भक्त आप के। दृश्यमान हों नीर-क्षीर से ॥ ४ ॥