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प्राचीन नाटक मणिमाला नागे प्रचंड बचारि तरंग उडै भड़कै जल्न बाढ़त ज्वाला। छेदन बायु के बेग ले जाय हिलाय दयो धुनि ज्यापि पताला॥ विश्व सँभारे जो आदिवराह भयो तिनके मुख शब्द कराला। गर्जत है सोइ मेघ समान लागे जब लेक सहारनकाला।
(जटायु प्राता है) जटा०-कावेरो जेहि चहुंदिसि घेरे ।
उतरौं शिखर मलयगिरि केरे ॥ तहाँ बलत खगपति बड़भाई । लगे पड गिरिवर को नाई ॥ मेरेहु उड़े थकावट लागत । मेरे पड उद्यम निज त्यागत ॥ प्रवल काल की शक्ति, बुढ़ाई।
शक्ति सकल तन केरि नसाई॥ यह तो मन्वन्तर के पुराने बड़े भाई धराज सम्पाति हैं। भाई की प्रीति भी कैली है।
दूर उड़न का खेल करत एक युग मह ागे। पहुंचि गयों रविपाल जरन तब मो पख लागे। महिं बालक तब जानि भपटिनिज पख फैलावा।
कीन्ह दया लम्पाति भ्रात तब मोहि बचावा !! ( आगे बढ़ के) भाई काश्यप। जटायु प्रणाम करता है। सम्पाति-पात्रो भया।
तोहि गीधन अधिराज लहि धन्य हमारी माय ।
बिनता ज्यों दादी रही गरुड़ सरिस सुत पाय ॥ (गले लगा के) भैया जटायु भला बहुत दिन बीतने से रामचन्द्र जी को जो बाप के मरने का सोक हुआ था वह कुछ घटा?
जटायु-मन स्वभाव से धीर अति मुनिगन को सतसङ्ग ।