________________
४.
प्राचीन माणसाला गुम्न दंड मोजद चतुर लो समम मायने तो रस को बढ़ाई होने पर जाओ विनई गो तो बहुत बुरा होगा !
स्वर आदिक लक नासु सनेही। बिगारहि जो अरिबांधा नही। देल निसात मिति हैं जाई।
खर कर होशिश प्रथम अधाई। उन्सलेही शाम
शुपं देखिये तो पराधीन होना भी कैसी ही है। रान और बरम का शुलक है नरेलीप ऐसा सोच रहे हैं। माल्यासपूतों के ऐसे ही काम होते है। शुर्य मला बिन्दा खरदूपन के विभीपन का कर सकता है। माल्यभरे बह बड़ा आतुर है जन जागा कि बिगाड़ होने ला है तो आपका जायगा हम लोगों के चाहिये कि इस के सा जाने मानो कोई बात ही नहीं है यह डर निरा मूला विचहो का भ्रम है।
बालापन की अहै मिताई। सो मिलि सुग्रीवहिं जाई । इई वालि तहि केह महि जोई।
मुख्यमूक पर निवसत साई। तव वालिने मिलके उपाय का रामले न मिलेगा क्योंकि तब वाली के बुरा लगेगा !
शुर-और जो कहीं बालिका र जनाता देख परशराम का जीतनेवाला उसे भी मातब तो निमीषा और राम का मिलना अनर्थ हो जायगा। मालय-अरे बेटी
हत्यो बालि तिन हम कह मारा। विनसा तब रासकुल सारा