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प्राचीन नाटक मणिमाला घर--करिहै। यश्चित मैं कति नमाम तुम्हार ।
न धर्म निगिहि नि हाय हश्चार और मी--- मुखिहु सल मित्र जर जल डाला
राखब निज जन सर लिन माना। तुम लव अन्धु, वाँह यह मारी।
अहं मुकरी समर मह डोरी विवा- प्रारही भाषा
पद पद महिना कनि प्रमर परशुराम की बात।
चिन उपजाबत मार हिर नित वेधत बात परशुभ-सुने नहाना कौशिक्षजी,
गुरु वलिष्ट नित ब्रह्म में रहे लगाये ध्यान । बीरन के कुल धर्म में तुमही गुरू प्रधान । सुगु के उत्तम बल में लहो जन्म जग जोय।
सो कर लोन्ही शस्त्र तेहि इह उचित का होय वसिष्ठ-( पाप हो आप)
है स्वभाव सन यह असर गुना सन यदपि महान।
महिमा लहि मर्याद तजि, जगत करै अभिमान विश्वास-भैया हम यह कहते हैं ।
तुम एक के पास से तजि धोरमति चित, कोपि के। बिन काज त्रिय जाति मारी व्यर्थ ही प्रण रोपि है। द्विन बीज के छत्रि इकाइस धार जग सबछानि के।
संहारि रोक्यो कोच पुनि मुनि य बन कहने मानि कै परशुरु-पिता के अध से जो नियों के मारने का बड़ा काम मिला था डल्ले तो मैं छोड़ बैठा इस में क्या कहना है।
बजखंड के सरिस परहा यद्यपि अति प्यारा! पम्यो छत्रवध छाडि इंधनै रा।