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परशु ने नहीं
मोहनहितहरि कन उन सात ! बेटे कोषि देकि उनकी शिसे वक दिवाका । के जो यह कोई दुःख पाद:
है कि
भाई च
नये
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जान
पशु-त्रीच्या कलिन
यह तरल का रहे हैं
इन पहल
के परि सेकंड पर हाय राम-महुकार की बड़ी या जग रहा है
घोट
पशु-रे यह तो पर भी नाक चढ़ता है। घरे निय के सभी का है और तेरी गई वह है इसी से हम का बड़ा तरल लगता है ।
सब जाने थाई लोक महं गायें रवि राव गाथ | परशुराम मित्र नाथ को काव्य दिर निज हाथ !! और तुम मेरे मूह
क्षत्रिय की जाति को विरोध मानि गर्न का पेट रूम काटि डंड aण्ड करि डारे हैं। राजन के बंसल इस कार के र देश कडे मोर भूमि हरि हरि नारे हैं ।। वैरिन के लोह के उड़ा में भरि afरकै कुमाये मज कोध के अंगारे है। एक ही को न पिताहि दीन्ह कौन भूप
जानत सुभाव और न चरित्र हमारे है ||
राम- निर्दयी हो के सारता तो पुरुष का दोष है उसमें कौन डींग मारने की बात है।
परशुराम मरे चत्रिय के लक्ष्ये तू बहुत पकता है ।