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उपर्युक्त काव्य में कवि निराला का दार्शनिक अन्दाज झलकता है इस दुःख की रात्रि में तुम स्वप्न जागृति का आनन्द लाभ करो अर्थात सोते हुए भी तुम जागृतिवस्था में स्थिर रहो दुःख की घटा को निकल जाने दा) क्योंकि उजाले के बाद अँधेरा और दुःख के बाद सुख का स्वाभाविक पदार्पण होगा। यहॉ नभ, नील, स्पप्न सुघर में 'न' और 'रा' की आवृत्ति एक से अधिक बार ही हुई है। इस प्रकार काव्य में अनुप्रास को अपना स्थान बनाए रखने में सफलता प्राप्त हुई है।
छायावादी कवियों को प्रकृति ने अपनी ओर भरपूर आकर्षित किया है हलांकि 'सुमित्रानन्दन पन्त' को ही 'प्रकृति का चतुर चितेरा' कहा जाता है लेकिन कवि निराला ने भी अपने सम्पूर्ण काव्य में प्रकृति का बखूवी दोहन किया है कवि ने इस कविता में भी प्रकृति के माध्यम से एक सुन्दर रमणी का चित्र खींचने का प्रयास किया है:
"दिवावसान का समय, मेघमय आसमान से उतर रही है। वह सन्ध्या -सुन्दरी परी सी,
धीरे-धीरे-धीरे-।।" निराला जी ने अपने उपर्युक्त काव्य में धीरे-धीरे-धीरे का प्रयोग तीन बार किया है यहाँ कवि की स्वर्गीय नायिका यानी 'सन्ध्या-सुन्दरी' परी मन्द एवं सूक्ष्म गति से वातावरण को अपने शान्तमयी आगोश में लेने का प्रयास कर रही है। पूरा वातावरण शान्त है और इसी शान्त वातावरण में सन्ध्या सुन्दरी परी नई नवेली दुल्हन की तरह उसी प्रकार धीरे-धीरे कदम बढ़ाते हुए सम्पूर्ण वातावरण को अपने अगोश मे ले लेती है।
1. 'सन्ध्या-सुन्दरी' : निराला रचनावली भाग (1) : पृष्ठ - 77