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कवि का विद्रोही स्वरः
महाकवि ने अपने आवेगमय काव्य के माध्यम से बादल से प्रार्थना की है कि हे गम्भीर स्वर वाले बादल तुम इतनी कठोरता से बरसो कि सम्पूर्ण प्रकृति में एक नव-जीवन का संचार हो जाए:
"घन-गर्जन से भर दो वन। तरू तरू पादप-पादप तन। अब तक गुंजन-गुंजन पर नाचीं कलियाँ छवि निर्भर;। भौरों ने मधु पी-पीकर, माना, स्थिर-मधु-ऋतु कानन। गरजो हे मन्द, बज्र स्वर, थर्रारे भूधर-भूधर, झरझर झरझर धारा झर,
पल्लव-पल्लव पर जीवन ।।1 नव-जीवन निर्माण के लिए राग-रंग का वातावरण हितकर नहीं है इसी कारण कवि मेघ से गर्जन को प्रार्थना करता है वह उनके प्रलयंकारी रूप में नवीन सृष्टि के निर्माण का दर्शन करता है, यह कवि प्रकृति-रूपी बादल से प्रार्थना करता है कि हे बादल! तुम अपने गर्जन-रूपी आवेगमय वर्षा से वन के प्रत्येक वृक्ष और पौधे को भर दो, अब तक अपने सौन्दर्य पर जीवित रहने वाली अर्थात् सौन्दर्य से भरी हुई कलियाँ भौरों के गुंजन को सुन-सुनकर नाचती है। भौरों ने उनका मधु पी-पीकर वन में बसन्त-ऋतु की शोभा को स्थायी माना है। प्रकृति का मानवीकरण करते हुए निराला ने पूँजीवादी वर्ग को भौंरा एवं
1. 'घन गजन से भर': दो मन : गीत : द्वितीय अनामिका : पृष्ठ-35
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