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आचार्य 'रामचन्द्र शुक्ल' ने निराला जी के इस काव्य को संशलिष्ट कहा है। संबंधित पंक्ति में कवि ने शिविर के इर्द-गिर्द के परिवेश का वर्णन किया है आकाश अन्धकार उगल रहा है हवा का चलना रूका हुआ है पृष्ठभूमि में स्थित समुद्र गर्जनकर रहा है, पहाड़ ध्यानस्थ है और मशाल जल रही है। तात्पर्य यह है कि ये सब के सब कियाशील है हवा का रूकना और पहाड़ का ध्यानास्थ होना भी अनायास नहीं है ये उनकी क्रियाएँ है। ये क्रियाशील ही इस बिम्ब को प्रभावशाली बनाते हैं। यहाँ कवि अपने मानस का प्रतिबिम्ब वाह्य-जगत् में देखता है कवि का मानस आवेग से पूर्ण है वह हृदय की भावानुभूति पहाड़ो में देख रहा है पहाड़ रूपी हृदय मानों अग्नि-वर्षा कर रहा है। यहाँ मानस का बिम्ब वाह्य जगत में स्पष्ट परिलक्षित होता है।
कृतिवास की रामायण में इन्द्र की प्रार्थना पर ब्रम्हा अकालबोधन द्वारा राम को देवी की आराधना करने का परामर्श देते हैं। किन्तु 'राम की शक्ति-पूजा' में जामवन्त अत्यन्त प्रभावी रीति से राम के गौरव के अनुकूल इस प्रकार का परामर्श देते है :
"हे पुरूष सिंह, तुम भी यह शक्ति करो धारण, आराधन का दृढ़ आराधन से दो उत्तर, तुम वरो विजय संयत प्राणों से प्राणों पर; रावण अशुद्ध होकर भी यदि कर सका त्रस्त, तो निश्चय तुम हो सिद्ध, करोगे उसे ध्वस्त, शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन, छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनन्दन! तब तक लक्ष्मण हैं महावाहिनी के नायक,