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और 'पंचवटी प्रसंग' तथा 'तुम और मैं' की कल्पना - शीलता देखते ही बनती है। 'बादलराग' और 'कुकुरमुत्ता' जैसी कविताएँ कवि के उदात्तीकरण की प्रवृत्ति को एक नया आयाम देते हैं । निराला ने अपने काव्य में उदात्त चित्रों को काव्योचित उत्कर्ष दिया है यह उनकी पांडित्य - शैली भी कही जा सकती हैं। अपने काव्य में निराला ने विशाल - चित्र - फलक पर संशलिष्ट और सामासिक भाषा प्रयोगो द्वारा विराट चित्रों की अवतारणा की है।
उज्जवल—उदात्त सांस्कृतिक आवेगः
'तुलसीदास' कविता के आरम्भ में प्रायः दस छन्दों तक देश की सांस्कृतिक विश्रृंखलता एवं नैतिक आत्मिक विपन्नता का वर्णन किया गया है। ऐसे वातावरण में तुलसी जैसे किसी भी स्वाधीन चेतना - सम्पन्न भारतीय के मन में घुटन - टुटन का अनुभव स्वाभाविक है। इन आरम्भिक छन्दों में आवेग का निम्न-स्वरूप दिखाई देता है।
"वीरों का गढ़, वह कालिंजर
सिंहों के लिए आज पिंजर;
नर हैं भीतर, बाहर किन्नर - गण गाते;
पीकर ज्यों प्राणों का आसव
देखा असुरों ने दैहिक दव,
बंधन में फॅस आत्मा - बाँधव दुःख पाते ।
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सोचता कहाँ रे, किधर कूल
बहता तरंग का प्रमुद फूल ?
यों इस प्रवाह में देश मूल खो बहता;
'छल-छल-छल' कहता यद्यपि जल,
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