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'विधवा' के लिए "इष्टदेव के मन्दिर की पूजा-सी" जैसा बिम्ब कोई महान अवधारणा वाला कवि ही दे सकता है। 'मन्दिर की पूजा सी' कहते ही भारतीय विधवा की वह पवित्र-मूर्ति पाठक के सामने उपस्थित हो जाती है, यह केवल मूर्ति ही नहीं होती है बल्कि उसका पूरा भारतीय संस्कार पूरी सादगी पवित्रता के साथ उपस्थित हो जाता है ऐसी कल्पना महाकवि निराला के यहाँ ही संभव है। निराला के परवर्ती काव्य की दूसरी शैली जो हास्य-व्यंग्य और विनोद प्रधान है, जिसमें उन्होने 'कुकुरमुत्ता' की रचना की है, इस तरल शैली भी कही जा सकती है, यह बोल-चाल का ही नहीं दैनिक जीवन में बरते जाने वाले कटाक्षों और अपशब्दों का भी प्रयोग करती है।
निराला की ये काव्य-शैलियाँ एक दूसरे से इतनी स्वतन्त्र है और अपने में इतनी सशक्त भी हैं कि उन्हें किसी वृहत्तर वृत्त में रखकर नहीं देखा जा सकता और न किसी लघुतर वृत्त में रखा जा सकता है। काव्यवस्तु और काव्यशैली का सामंजस्य प्रस्तुत करने वाले ये सुस्पष्ट एवं अनिर्वाय शैली प्रयोग है। इतना बड़ा महान अवधारणाओं की क्षमता वाला कवि हिन्दी काव्य में तो है ही नहीं, नवयुग के सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में भी मुश्किल से मिलेगा।
"अबे! सुन बे, गुलाब भूल मत गर पाई खूशबू रंगो आब खून चूसा खाद का तूने आशिष्ट डाल पर इतरा रहा कैपटलिस्ट!
कली जो चटकी अभी सुखकर काटॉ हुई होती कभी रोज पड़ता रा पानी