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जो मुझे थे पार करने,
कर चुका हूँ हँस रहा यह देख कोई नहीं भेला ।"1
'मेला' के हटते जाना जहाँ उत्सव - शून्य वृद्ध जीवन को सामने लाता है वहीं 'भेला' की अनुपस्थिति आत्म-निर्भर, रचना शील व्यक्तित्व को उजागिर करती है। और 'हट रहा मेला' के विषाद को पीछे कर देती है । विषाद और उपलब्धि की ऐसी ही सह - अवस्थिति की जटिलता को कवि ने कितनी सहजता से आम के सूखी डाल के बिम्ब में अनुस्यूत कर दिया है। यह 'स्नेह - निर्झर - बह गया' गीत में देखा जा सकता है। 'गीतिका' के क्लिष्ट शब्दावली में रचे सिद्धि, आत्म-साक्षात्कार के गीतों के सामने 'अणिमा' का यह गीत दृष्टव्य हैः- जिसमें सिद्धि का सारा उल्लास और आत्मीय अनुभव बहुत अनौपचारिक ढ़ंग से अंकित किया गया है।
"मैं बैठा था पथ पर
तुम आए चढ़ रथ पर,
हँसे किरण फूट पड़ी
टूटी जुड़ गयी कड़ी
भूल गए पहर घड़ी
आयी इति अथ पर |
उतरे, बढ़ गयी बाँह,
पहले की पड़ी छाँह,
शीतल हो गयी देह,
ती अविकथ पर | "2
1. 'मैं अकेला'- 'अणिमा' 2. 'मैं बैठा था पथ पर
निराला रचनावली (2) पृष्ठ
'अणिमा'
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निराला रचनावली (2) – पृष्ठ – 48
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