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उदात्त के पोषक अलंकारों में रूपक के अतिरक्ति लौंजाइनस ने विस्तारणा, शपथोक्ति (संबोधन) प्रश्नालंकार विपर्यय, व्यतिक्रम, पुनरावृत्ति, छिन्न -वाक्य, प्रत्यक्षीकरण, संचयन, सार रूप परिवर्तन, पर्यायोक्ति आदि का मनौवैज्ञानिक पद्धति से विवेचन किया है। (I) विस्तारण:- किसी विषय के सम्पूर्ण अंगों और अंगभूत प्रसंगों के समुदाय का नाम विस्तारण है जिससे विषय के विस्तार द्वारा युक्ति में बल आ जाता है। इसके तत्व हैं- विवरण और प्राचूर्य । (ii) शपथोक्तिः - इसमें आन्तरिक शपथ के द्वारा ओज और विश्वास के अंकुर उत्पन्न किए जाते हैं। (iii) प्रश्नालंकार:- परम्परा के अनुसार वक्ता स्वंय प्रश्न करके शीघ्र ही समाधान करने मे यदि सफल हो जाता है तो उसका यह वक्तव्य अत्यन्त उदात्त और विश्वासोत्पादक बन जाता है। (iv) विपर्यय और व्यतिकमः- इसमें शब्दों अथवा विचारों के सहज व्यक्तीकरण में उलटफेर किया जाना स्वाभाविक है जिस प्रकार मनुष्य वास्तव में कोध, भय, मन्यु, ईष्या अथवा किसी अन्य भावना से, क्योंकि आवेग अनेक और असंख्य हैं और उनकी गणना संभव नहीं, उत्तेजित होकर कभी-कभी दूसरी ओर मुँह फेर लेते हैं, अपने मुख्य विषय को छोड़कर दूसरे पर लपक उठते हैं और बीच में ही कोई सर्वथा असंबद्ध बात ले आते हैं और फिर उसी प्रकार अचानक ही तेजी से घूमकर अपने मुख्य विषय पर लौट आते हैं और बात-चक की भाँति अपने वेग परिचालित होकर जल्दी -जल्दी इधर-उधर बहकते वे अपनी शब्दावली को विचारों को, और उनके सहज कम को, नाना प्रकार के असंख्य रूपों में बदलते रहते हैं, उसी प्रकार श्रेष्ठ लेखक विपर्यय के द्वारा इस सहज प्रभाव को यथा सम्भव अभिव्यक्त करते हैं।
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