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________________ विचरण करने लगती हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में जिसे चित्त की 'दीप्ति' या 'स्फीति' कहा है। (ii) उल्लासः- (क) जिससे हमारी आत्मा हर्ष व उल्लास से परिपूर्ण हो जाती (ख) साधारणतः औदात्य के उन उदाहरणों को श्रेष्ठ सच्चा मानना चाहिए जो सब व्यक्तियों को सर्वदा आनन्द दे सकें। (iii) संभ्रम अर्थात् आदर और विस्मयः- जो कुछ भी उपयोगी तथा आवश्यक है उसे मनुष्य साधारण मानता है, अपने संभ्रम का भाव तो वह उन पदार्थो के लिए ही सुरक्षित रखता है जो विस्मय- विमूढ कर देने वाले हैं। (iv) अविभूति अर्थात् सम्पूर्ण चेतना के अभिभूत हो जाने की अनुभूतिः-उदात्त की अनुभूति का अन्तिम रूप यही है: ऊर्जा उल्लास सम्भ्रम आदि के सम्मिलित-प्रभाव रूप अंततः हमारी सम्पूर्ण-चेतना अभिभूत हो जाती है लौंजाइनस ने "विस्मय -विमूढ" शब्द के द्वारा इसी भाव को व्यक्त किया है। ताकि ध्यान न जाए कि यह अलंकार है।' स्पष्टतः कला की यही सबसे बड़ी सिद्धि है कि उसके प्रयोग के विषय में प्रमाता को सन्देह तक न हो, परवर्ती आलोचना शास्त्र में इसे ही कला का आत्मगोपन कहा गया है जब अलंकारों का प्रकोप स्वतन्त्र रूप में होने लगता है, अर्थात जब वे साध्य बन जाते हैं तो उनका उद्देश्य ही विफल हो जाता है इसलिए लौंजाइनस अलंकार प्रयोग के लिए यह आवश्यक मानते हैं कि वह साधन-रूप हो, प्रसंगानुकूल हो, अतिचार से मुक्त हो और अथलज हो, कम से कम अत्यनज प्रतीत हो क्यों कि कला-प्रकृति के समान प्रतीत होने पर ही सम्पूर्ण होती है। 1. काव्य में उदात्त तत्व - डॉ० नगेन्द्र - पृष्ठ-77 2. काव्य में उदात्त तत्व - डॉ० नगेन्द्र - पृष्ठ-74
SR No.010401
Book TitleLonjanas ke Tattva Siddhanta Adhar par Nirla Kavya ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPraveshkumar Sinh
PublisherIlahabad University
Publication Year2002
Total Pages187
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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